आदर्श हिन्दू घर-परिवार: हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति जीवन्त संस्कृति बनी रही , इसका प्रमुख कारण है ' परिवार ' । हिन्दू परिवार हिन्दू संस्कृति की प्राथमिक पाठशाला है । हमारा परिवार देव संस्कृति का संदेशवाहक है । मानव जीवन के चार सोपान ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास ) में से गृहस्थ आश्रम को सबसे श्रेष्ठ माना गया है ।
आदर्श हिन्दू घर -परिवार: हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति जीवन्त संस्कृति बनी रही , इसका प्रमुख कारण है ' परिवार ' । हिन्दू परिवार हिन्दू संस्कृति की प्राथमिक पाठशाला है । हमारा परिवार देव संस्कृति का संदेशवाहक है । मानव जीवन के चार सोपान ( ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ , सन्यास ) में से गृहस्थ आश्रम को सबसे श्रेष्ठ माना गया है ।
परिवार व्यक्ति की रक्षा करने के साथ ही राष्ट्र की भी रक्षा करता है । अतः परिवार की रक्षा करना आवश्यक है कुटुम्बो रक्षति रक्षितः । परिवार से समाज बनाना, उसमें मेलजोल बढ़ाना , संस्कारयुक्त व्यक्ति का निर्माण करना, चराचर जगत की समस्त सृष्टि के साथ सहयोग व आत्मीयतापूर्ण व्यवहार तथा वयं का भाव विकसित करना, इन सभी बातों के लिए परिवार की बहुत बड़ी भूमिका है ।
भारतीय समाज रचना में परिवार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है । आदर्श परिवार से ही आदर्श समाज रचना सम्भव है । परिवार समन्वित कर्तव्यों व अधिकारों की कर्मभूमि होता है ।
परिवार अस्ताचल सूर्य जैसे अनुभवी वृद्धों से लेकर उदीयमान सूर्य जैसे शिशुओं का एकत्रित स्वरूप है । हिन्दू समाज में प्रत्येक के कर्तव्य पालन में दूसरे का अधिकार निहित है । परिवार में ' हम और अपनापन ' भाव जब तक रहता है ,कौन बनेगा , इसके लिए झगड़ा नहीं होता, स्वतः निर्धारण हो जाता है ।
परिवार का भाव पनपने लगता है , परिवार टूटने का बीजारोपण हो जाता है । परिवार का प्रमुख परिवार टूटता नहीं है और जिस दिन परिवार के किसी सदस्य में ' मैं और मेरा ' का प्रमुख समन्वयकारी होता है । अपने यहाँ कहा गया है :
मुखिया मुख सो चाहिए , खान - पान को एक ।
पाले पोसे सकल अंग , तुलसी सहित विवेक ॥
दूसरे परिवार की लड़की बहू के रूप में आकर परिवार में गृह स्वामिनी बन जाती है । ऋग्वेद में कहा गया है :
सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी स्वश्ववां भव ।
ननान्दिरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु ॥ ( ऋग्वेद 10-85-46 )
अर्थात परिवार के वृद्धजन नई बहू को आशीर्वाद देते हैं - हे पुत्री , ससुर की दृष्टि में तुम महारानी बनो , सास की दृष्टि में महारानी बनो , ननद की दृष्टि में महारानी बनो और देवरों की दृष्टि में महारानी बनो , यही हमारा आशीर्वाद है , यही हमारी शुभकामना है , यही हमारी शिक्षा और यही हमारा उपदेश है । -
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मनुष्य के सम्पूर्ण विकास में सोलह संस्कारों की व्यवस्था है । विवाह तेरहवाँ संस्कार है ।
परिवार में उत्तरदायित्व का कोई लिखित प्रावधान नहीं होता । परिवार में अनेक प्रकार के कार्य रहते हैं । परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनी क्षमता और योग्यतानुसार कोई न कोई कार्य स्वयं अपने जिम्मे ले लेता है । उत्तरदायित्व न निभाने पर कोई दण्ड का विधान भी परिवार व्यवस्था में नहीं होता है ।
हिन्दू समाज की विशेषता रही है कि हमने सम्बन्धों का विस्तार किया है । सम्बन्धवाची शब्द जितने हमारे यहाँ उपलब्ध हैं , उतने सम्भवतः विश्व में कहीं भी नहीं हैं । हमारे यहाँ अंग्रेजी के समान Maternal ( मातृत्व ) या Paternal ( पितृत्व ) जैसे केवल दो शब्दों से काम नहीं चलता ।
हमारे यहाँ तो प्रत्येक सम्बन्ध के लिए एक निश्चित सम्बोधन है । नौकर को भी काका आदि , नौकरानी को काकी , चाची आदि कहकर पुकारने की प्रथा रही है । केवल मनुष्य नहीं पशु - पक्षियों एवं प्रकृति के साथ भी हमने सम्बन्ध स्थापित किया हुआ है ।
जैसे बिल्ली मौसी, चूहे मामा, सूरज दादा, चन्दा मामा, बादल चाचा, बिजली रानी कहकर उनको प्रेम व आदर के साथ पुकारते रहे हैं । दुर्भाग्य है कि अंग्रेजी भाषा ने रिश्तों की दुनिया को समाप्त कर केवल ' अंकल - आंटी ' तक सीमित कर दिया है
पश्चिमीकरण का दुष्प्रभाव विगत कुछ वर्षों से अपने देश के जीवन मूल्यों पर भी बना हुआ है । संयुक्त परिवार टूट रहे हैं , वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है, पति - पत्नी में तलाक के आँकड़े बढ़ रहे हैं तथा परिवार में सम्पत्ति के झगड़े बढ़ रहे हैं ।
' हम दो , हमारे दो ' या ' हम दो, हमारे एक ' के कारण रिश्तों की दुनिया सिमट रही है । इसका दुष्परिणाम है जनसंख्या असंतुलन । सम्भावना व्यक्त की जा रही है सन् 2050 तक हिन्दू अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जायेंगे ।
संयुक्त परिवारों के टूटने के कारण परिवारों में संस्कारों का क्षरण होने लगा है और इस कारण मातृशक्ति पर अत्याचार बढ़ रहे हैं । यद्यपि प्रत्येक क्षेत्र में महिलाएं आगे बढ़कर कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं ।
आदर्श परिवार वह माना जाता है , जिसमें घर की सज्जा , घर में संस्कार देने की पद्धति, परिवार की भूमिका आदि में राष्ट्रवाद, धर्म एवं संस्कृति के प्रति आस्था, अपने श्रद्धा केन्द्रों व अपने महापुरुषों के प्रति सम्मान का भाव प्रकट हो ।
पारिवारिक जीवन पर बदलते समय में पड़ने वाले दुष्प्रभाव को समाप्त करना दुष्कर कार्य लगता है परन्तु निम्न कुछ बातों पर परिवार में चिन्तन या व्यवहार हो, तो अपेक्षित परिवर्तन आ सकता है :
1 . सायंकाल परिवार के सभी छोटे - बड़े सदस्य भगवान की आराधना - प्रार्थना साथ - साथ करें ।
2. प्रतिदिन एक बार , सम्भव न हो तो सप्ताह में कम से कम एक बार सामूहिक भोजन करें ।
3 . सप्ताह में एक बार परिवार के सभी सदस्य एक साथ मिल - बैठकर परिवार से सम्बन्धित किसी विषय पर परस्पर प्रेम व विश्वास के साथ चिन्तन व चर्चा करें तथा परिवार में संस्कार वृद्धि हेतु कुछ प्रयोग शुरू करें । जैसे सप्ताह में एक दिन दूरदर्शन रहित दिनचर्या का पालन तथा किसी एक या अधिक परिवारों को अपने यहाँ आमंत्रित करना अथवा किसी परिवार में अपने परिवार सहित जाना ।
4 . जन्मदिन पर केक काटने तथा मोमबत्तियाँ बुझाने के स्थान पर देव दर्शन , दीप • जलाना , भजन कीर्तन करना तथा जिसका जन्मदिन है , उसके द्वारा दान दिलवाना चाहिए ।
5 . परिवार में किसी शादी विवाह व मंगल उत्सव के अवसर पर अनावश्यक आर्थिक प्रदर्शन न करते हुए बचे हुए धन का किसी सेवा कार्य में उपयोग करना । शुभ अवसरों , उत्सवों आदि के अवसरों पर सेवा बस्ती से या अपने घर में कार्य करने वाले सफाई कर्मी , आयामहरी आदि को भी अन्य मित्रगणों की भांति आमंत्रित करना तथा उसी आदर भाव से उनके साथ भी व्यवहार करना ।
6 . परिवार में मंगल निधि कोष प्रारम्भ करना तथा उसमें संग्रहीत धन को सेवा कार्यों में लगाना चाहिए।
7 . परिवार के सभी सदस्य अपने जीवन व्यवहार में ' स्व ' के बोध को दृढ़ करें । जैसे - स्व - भाषा, स्व - भूषा, स्वदेश -स्वदेशी, स्व - तंत्र, स्व - धर्म, स्व - संस्कृति, स्व - अनुशासन आदि ।
8 . यम एवं नियम का पालन करें -
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रिय निग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यम् अक्रोधो दशकम् धर्मलक्षणम् ॥
अर्थात- धृतिः ( धैर्य ), क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह , धी ( विवेक बुद्धि ), विद्या, सत्य और अक्रोध - ये धर्म के दस लक्षण हैं ।
9. सेवा व्रत का पालन करें-
परोपकाराय पुण्याय , पापाय परपीड़नम् ।
अर्थात- दूसरों की भलाई से बड़ा कोई पुण्य नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा कोई पाप नहीं है । यही सब ग्रन्थों का सार है । मात्र धार्मिक कर्मकाण्ड से पुण्य नहीं मिलता है ।